महाभारत काल में, अतीत में पांच पांडवों जैसे कई योद्धा हुए, लेकिन किसी ने भी अपने भीतर मौजूद पांच विकारों को नष्ट करके अपने द्वैत को समाप्त करने का प्रयास नहीं किया।
घर-परिवार का त्याग करके अनेक लोग आचार्य, सिद्ध और ऋषि बन गए, किन्तु किसी ने भी स्वयं को माया के तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त रखकर अपने मन को उच्चतर आध्यात्मिक अवस्था में लीन नहीं किया।
एक विद्वान व्यक्ति वेदों और अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके दुनिया को ज्ञान प्रदान करता है, लेकिन वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर सकता और न ही अपनी सांसारिक इच्छाओं को समाप्त कर सकता है।
जो गुरुभक्त सिख साधु-संतों की संगति में रहकर, प्रभु-समान सच्चे गुरु की सेवा में अपने मन को ईश्वरीय शब्द में लीन कर लेता है, वही वास्तव में प्रभु का सच्चा विद्वान है। (४५७)