गुरु-चेतना वाला व्यक्ति साधु-संत की संगति में रहकर सभी नौ निधियों का लाभ उठाता है। कालचक्र में रहते हुए भी वह उसके प्रकोप से बचा रहता है। वह काल के विष को सर्प की तरह नष्ट कर देता है।
वह साधु पुरुषों के चरणों की धूलि में बैठकर भगवान के नाम का रस पीता है, जाति-अभिमान से रहित हो जाता है, तथा अपने मन से ऊंच-नीच का भेद मिटा देता है।
वह साधु पुरुषों की संगति में रहकर तथा नाम रूपी अमृत का आनन्द लेते हुए अपने आत्म में लीन रहता है तथा चेतनापूर्वक संतुलन की स्थिति में आसक्त रहता है।
वह महात्माओं की संगति में भगवान के अमृतरूपी नाम का रसपान करके परमपद को प्राप्त करता है। गुरुपरायण पुरुषों का मार्ग वर्णन से परे है। वह अविनाशी और दिव्य है। (127)