कबित सव्ये भाई गुरदास जी

पृष्ठ - 568


ਜੈਸੇ ਅਹਿਨਿਸ ਅੰਧਿਆਰੀ ਮਣਿ ਕਾਢ ਰਾਖੈ ਕ੍ਰੀੜਾ ਕੈ ਦੁਰਾਵੈ ਪੁਨ ਕਾਹੂ ਨ ਦਿਖਾਵਹੀ ।
जैसे अहिनिस अंधिआरी मणि काढ राखै क्रीड़ा कै दुरावै पुन काहू न दिखावही ।

जैसे अंधेरी रात में साँप अपनी मणि निकालता है, उससे खेलता है और फिर उसे छिपा देता है और किसी को नहीं दिखाता।

ਜੈਸੇ ਬਰ ਨਾਰ ਕਰ ਸਿਹਜਾ ਸੰਜੋਗ ਭੋਗ ਹੋਤ ਪਰਭਾਤ ਤਨ ਛਾਦਨ ਛੁਪਾਵਹੀ ।
जैसे बर नार कर सिहजा संजोग भोग होत परभात तन छादन छुपावही ।

जिस प्रकार एक सद्गुणी पत्नी रात्रि में अपने पति के साथ रहकर सुख भोगती है और दिन निकलते ही पुनः वस्त्र धारण कर लेती है।

ਜੈਸੇ ਅਲ ਕਮਲ ਸੰਪਟ ਅਚਵਤ ਮਧ ਭੋਰ ਭਏ ਜਾਤ ਉਡ ਨਾਤੋ ਨ ਜਨਾਵਹੀ ।
जैसे अल कमल संपट अचवत मध भोर भए जात उड नातो न जनावही ।

जिस प्रकार कमल के फूल के डिब्बे में बंद भौंरा मधुर रस चूसता रहता है और सुबह फूल के पुनः खिलते ही उससे कोई सम्बन्ध स्वीकार किये बिना उड़ जाता है।

ਤੈਸੇ ਗੁਰਸਿਖ ਉਠ ਬੈਠਤ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਜੋਗ ਸਭ ਸੁਧਾ ਰਸ ਚਾਖ ਸੁਖ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵਹੀ ।੫੬੮।
तैसे गुरसिख उठ बैठत अंम्रित जोग सभ सुधा रस चाख सुख त्रिपतावही ।५६८।

इसी प्रकार सद्गुरु का आज्ञाकारी शिष्य भगवान् के नाम के ध्यान में लीन रहता है और नाम रूपी अमृत का रसपान करके तृप्त और आनंदित अनुभव करता है। (परन्तु वह अपनी अमृतमयी स्थिति का वर्णन किसी से नहीं करता) (568)