सद्गुरु जी का सच्चा सेवक बनकर, उनके पवित्र चरणों की धूलि की सुगंध से प्रेम करते हुए तथा निरंतर ध्यान में लीन होकर, एक सिख आध्यात्मिक शांति में लीन हो जाता है।
गुरु-चेतन व्यक्ति कभी भी इच्छाओं और आशाओं की भयावह सांसारिक तरंगों से प्रभावित नहीं होता। ऐसा माना जाता है कि उसने सभी द्वैत नष्ट कर दिए हैं और भगवान की शरण ले ली है।
वह अपनी आँखें बुराइयों से दूर रखता है और निन्दा व प्रशंसा से कान बंद रखता है। वह सदैव नाम सिमरन में लीन रहता है और अपने मन में प्रभु की दिव्य आस्था को समाहित करता है।
मुक्त गुरु-चेतन सिख अपना सारा अहंकार त्याग देता है और अनंत भगवान, विश्व के निर्माता और इस पर सभी जीवन के स्रोत का भक्त बन जाता है। (९२)