कहीं न कहीं तुम शक्तियों और बुद्धि के रहस्यों की खोज कर रहे हो!
कहीं न कहीं तुम स्त्री के प्रति गहन प्रेम में दिखाई देते हो!
कहीं-कहीं तुम युद्ध के उत्साह में दिखाई देते हो! 17. 107
कहीं न कहीं तुम्हें धर्म-कर्म का निवास माना गया है!
कहीं-कहीं तो तू कर्मकाण्डीय अनुशासन को भ्रम मान लेता है!
कहीं तू महान् प्रयास करता है और कहीं तू चित्र के समान दिखता है!
कहीं आप दिव्य बुद्धि के स्वरूप हैं और कहीं आप सबके अधिपति हैं! 18. 108
कहीं तुम प्रेम का ग्रहण हो और कहीं तुम शारीरिक व्याधि हो!
कहीं न कहीं तुम ही औषधि हो, रोग के शोक को सुखाती हो!
कहीं आप देवताओं की विद्या हैं, तो कहीं आप राक्षसों की वाणी हैं!
कहीं न कहीं तू यक्ष, गंधर्व और किन्नर का प्रकरण है! 19. 109
कहीं न कहीं तुम राजसिक (गतिशील), कहीं सात्विक (लयबद्ध) और कहीं तामसिक (रुग्णता से पूर्ण) हो!
कहीं तुम एक तपस्वी हो, जो योग की शिक्षा का अभ्यास कर रहे हो!
कहीं आप रोग को दूर करने वाले हैं और कहीं आप योग से युक्त हैं!
कहीं तुम योग से युक्त हो, कहीं तुम सांसारिक कर्मों के आनंद में मोहग्रस्त हो! 20. 110
कहीं तुम देवताओं की पुत्री हो, तो कहीं तुम राक्षसों की पुत्री हो!
कहीं यक्षों, विद्याधरों और मनुष्यों की कन्या!
कहीं तू रानी है तो कहीं तू राजकुमारी है!
कहीं न कहीं तुम पाताल के नागों की श्रेष्ठ पुत्री हो! 21. 111
कहीं आप वेदों की विद्या हैं और कहीं आप स्वर्ग की वाणी हैं!